स्त्री वसुंधरा होती है

स्त्री वसुंधरा होती है

जब मुझे स्त्री नहीं देह समझ मेरा वजूद आंका जाता है

जब स्त्रियों के हँसने से उन के चरित्र का आंकलन होता हैं

इज्जत के नाम पर दो गज घूंघट डालने को कहा जाता हे 

शरीर पर झांकती निगाहो के साथ ही मनचलों के भद्दे ताने 

और जहा उन्हें कल सबक सिखा देने की बात कही जाती है

स्त्रियों को समाज तोड़ नहीं पाता तो करता है उनका चरित्र हनन 

जब तुम खोज रहे होते हो उनकी आंखो में आंसू पीड़ा, दुख 

वो दृढ़ संकल्प तोड़ देती है तुम्हारे बनाए सारे प्रतिमानों को

आंसुओ के नमक  के साथ उन का डर भी बह जाता  है

मुक्त होती है बंदिशों ,वर्जनाओं से  वे स्वच्छंद  होती है

बहती है नदी की तरह,ओंस की मानिंद गिरती है पत्त्तो पर

रचती है कविता ,देखती है सपने  करती है निर्माण नीड़ का         

करती है प्रेम उतनी गहराई से जितना तुम कभी नहीं कर पाए

वे वन लताओं की तरह अनुशासन या क़ायदे नहीं मानती है

वो होती है वसुंधरा,वो होती है सरिता, वो होती है प्रकृति

वो होती हे स्त्री स्वयं और प्रकृति के जीवन की अभिलाषा 

तुम्हे धता बता कर खुल कर हंसती है  वो जीवंत होती है

लेकिन क्या पितृसत्तात्मक समाज मैं स्त्रियां स्वच्छंद होती है ?

इस जग में सब होना सरल है लेकिन स्त्री होना कहां सहज है

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चित्र - पिक्सेल के सौजन्य से 


 

23 टिप्पणियाँ

आपके सुझाव एवम् प्रतिक्रिया का स्वागत है

  1. "इस जग में सब होना सरल है लेकिन स्त्री होना कहां सहज है"बिलकुल सही कहा आपने
    बहुत ही सुंदर सृजन ,सादर नमन

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  2. मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार आदरणीया मीना जी

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  3. सहज नहीं है स्त्री होना ...
    मन के भाव संवेदनशील होना .... हर दर्द में सिसकना कहाँ आसान होता है ...
    सुन्दर भाव ...

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  4. सही कहा सहज नहीं है स्त्री होना....
    बहुत ही सुन्दर भाव ।

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  5. वाह
    बहुत सुदर सृजन
    बधाई

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  6. इस जग में सब होना सरल है लेकिन स्त्री होना कहां सहज है।बिल्कुल सही कहा आपने। बहुत सुंदर रचना।

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